कितना अच्छा होता
अरबो, खरबो रूपये लगाकर, एक से एक विनाशक
हाथियारो के निर्माण की अंधी दौड़ की होड़ मे, दौड़ रहा यह संसार, हजारो
एटम और परमानु के निर्माण से जो महा विनाश को
आमन्त्रित कर रहा है,
कितना अच्छा होता, यही धनराशि, भूँख, गरीबी, बीमारी महामारी और बेरोजगारी को मिटाने मे संसार लगाता ,तो
मानवता को झकझोर देने वाला एवं ह्रृदय को व्यथित
कर देने वाला, आत्मा तक को भी पीडित करने वाला,
यह द्रृश्य अथवा यह चित्र संसार मे कही नही दिखता,
क्या ऐसा द्रृश्य वेदना को बढाने के लिए, संवेदना को जगाने के
लिए, मानवता को बचाने के लिए पर्याप्त नही हैं ?
ऐसे द्रृश्य संसार की संपूर्ण मानव जाति को सर्मसार करते हैं,
साथ साथ यह सोचने पर भी मजबूर कर देते हैं कि जो मानव
जाति मंगल ग्रह पर जीवन की तलाश कर रहा है,
उसी मानव समाज मे कुछ लोग भूँखे भी जी रहे हैं, कभी
कभी भूँखे सो भी रहे हैं.