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बजाते रहो तुम घण्टा! – मुकेश मांडण

बजाते रहो तुम घण्टा! – मुकेश मांडण

विश्वविद्यालय के कुलपति से मिलने के लिये छात्रों को उनकी गाड़ी के आगे लेटना पड़ता हैं, लाठियां खानी पड़ती हैं, घायल होकर अस्पताल पहुंचना पड़ता हैं!  कलक्टर से मिलना लगभग संभव ही नहीं होता है और हों भी तो मात्र कुछ ‘सेकण्ड्स’ का!  न जाने कलक्टर में ऐसी कौनसी बुद्धि होती होंगी कि वह कुछ सैकण्ड्स में ही सब समझ जाता होगा और वह भी बिना किसी जवाब के!!  मंत्री से मिलना हों, तो न जाने कितने दिन-महिने लग जाते हैं!  न जाने कितनी ‘परतों’ में घिरे रहते हैं माननीय और मिल भी लें, तो खुद सुनते नहीं!  उनकी आंख-कान और दिमाग़ सब उनका ‘पीए’ होता है।  सरकार का भाग बनने से पहले, गली-कूचों में घूमते हुए न तो उन्हें डर लगता है और न ही उनके ये नाक-कान-आंख-दिमाग कहे जाने वाले (अ)सहायक साथ होते हैं।  आखिर, जनता और जनप्रतिनिधि के बीच इतनी दूरी और समझ की खाई क्यों और कहां से आ जाती है, जिसका कोई उद्देश्य ही नहीं बनता!  जनप्रतिननिधि और जनता से नहीं मिलना, जनता को नहीं सुनना, आश्चर्य तो है ही, घोर अस्वाभाविक भी!!   कहने को जन सेवक किन्तु जनता के सेवक की तरह न कोई व्यवहार, न कोई सेवा की भाषा-भाव-भंगिमा और न कोई ऐसे उत्तरदायित्व का भान!!!  वाह रे, मेरी आजादी।  दरअसल, संवेदनहीन हो चुके शासन-प्रशासन के लिये जन-अपेक्षा और जन-आवश्यकता, व्यवहारिक रूप से कभी ‘अति- आवश्यक’ अथवा ‘उच्चत्तम प्राथमिकता’ बनते ही नहीं है।

युगों पहले कुम्भकर्ण की ‘नींद’ बहुत प्रसिद्ध थीं।  वह सो जाता था, तो महिनों तक जागता नहीं था।  उसे जगाने के लिये ढ़ोल-नगाड़े बजाने पड़ते थे।  कुम्भकर्ण तो रहा नहीं अब, पर हमारे नेता ‘कुम्भकर्ण’ जरूर बन चुके हैं।  कुम्भकर्ण की नींद को हमारी सरकारों ने ‘गोद’ ही नहीं लिया बल्कि आत्मसात कर लिया और इसलिये आज की सरकारें कुम्भकर्ण की नींद से भी गहरी नींद सोती मिलती हैं!  वे कभी जागती ही नहीं हैं।  न ढ़ोल- नगाड़े बजाने से, न रास्ते रोकने से, न धरने-प्रदर्शन करने से, न ज्ञापन-पत्रों से, न हड़ताल कर देने से और न ही  अदालतों की फटकार से!  महिनों में तो भूल जाइये, वर्षों तक नहीं जागती हैं हमारी सरकारें।

राजाओं के समय में भी प्रजा के लिये राजा से मिलना इतना कठिन नहीं था जबकि राजा को कोई चुनाव नहीं जीतना होता था।  राजा अपनी प्रजा से मिलने का समय निकालता था।   इसके लिये राजा अपने महल/दरबार के बाहर ‘घण्टा’ टांग के रखते थे और किसी आवश्यकता के समय प्रजा उस ‘घण्टे’ को बजा सकती थीं।  ‘घण्टे’ की आवाज सुनकर राजा प्रजा से मिलने आ जाता था भले ही समय रात्रि का ही क्यों न हों किन्तु आज के ‘राजाओं’ को प्रजा से मिलने का समय नहीं मिलता, न ही वे प्रजा से मिलना पसंद करते हैं जबकि उन्हें ‘राजा’ जनता ने ही वोट देकर बनाया होता है।  भारत जैसे देश में सरकारों से मिलने या उनका ध्यान किसी विषय अथवा समस्या की ओर आकर्षित करना बहुत बड़ी चुनौती होती है, जबकि होना तो इसे सरल और सहूलियत चाहिये था।  हमारे लोकतंत्र की प्रकृति और संविधान सरकारों को ‘जन कल्याणकारी’ के रूप में परिभाषित अवश्य करते हैं, पर जनता से दूरी और उससे मिलने की उदासीनता किस कल्याणकारी श्रेणी में आती है, कोई विशेषज्ञ ही बता सकते हैं।   यह शोध का ही विषय होगा कि शासन-प्रशासन की ऐसी उदासीनता न जाने कितनी उम्मीदों का गला घोंट डालती है!  कितनी पीढ़ियों को विकलांग कर जाती है।  सरकार का कोई भी अंग (विभाग)  जागती अवस्था में नहीं मिलता!  जिले का कलक्टर जब कभी नींद से जागकर किसी गली-कूचे की सफ़ाई के बारे में भूलवश ही पूछ लें या किसी अस्पताल की गंदग़ी को देखने के बहाने गलती से वहां चला भी जायें, तो स्थानीय अखबारों में ‘लीड’ बनती हैं बड़े-बड़े फोटो और बाबुओं के साथ मय कुछ फाइलों के।  याने कलक्टर का अपनी ड्यूटी नहीं करना ‘न्यूज’ नहीं बनती, लेकिन उसके ‘उबासी’ लेने की खब़र, खब़र बन जाती है।  यह वही मानसिकता है जहां हम ‘सरकारी नौकर’ को हजारों-लाखों लोगों को रोजग़ार देने वाले उद्यमी से भी बड़ा समझते हैं, जो किसी भी सरकारी अधिकारी को कभी ‘नॉर्मल फील’ करने का मौका ही नहीं देती।  ऐसा होना लगभग स्वाभाविक भी है क्योंकि हमारे यहां तो ‘नौकर’ होना ‘सेलिब्रेशन’ का विषय है जबकि ‘उद्यमी’ होना ‘संघर्ष’ का।

सरकार से मिलने में पहली बाधा दरअसल भ्रमावस्था में जीती नौकरशाही  और नेतागिरी का दिखावा है।  नौकरशाही का रवैया आज भी औपनिवेशिक काल का ज्यों का त्यों है।  नौकरशाही की जटिलता और उसकी सुस्ती जनता और सरकार के बीच की दूरी को और बढ़ा देती है।  न जाने कितने नेता आते-जाते रहते हैं, पर काम का दिखावा, व्यस्तता का बहाना और स्वकेन्द्रित नौकरशाही के कान पर कभी जूं नहीं रैंगती!  आम नागरिक का जब भी सरकार से काम पड़ता है, वह काग़जी कार्रवाही, प्रक्रियात्मक देरी और ‘फाइल नोटिंग’ में फंसा नज़र आता है।  यह ‘फाइल नोटिंग’ उसके लिये गले की फांस से कम नहीं होतीं।  कभी-कभी ऐसा अनुभव होता है जैसे शासन-प्रशासन जनता के लिये नहीं बल्कि जनता के विरुद्ध है  जिसका उद्देश्य जनता के काम को समाधान तक पहुंचाना है ही नहीं।  सरकार आम आदमी के द्वारा, तथाकथित रूप से आम आदमी के लिये और आम आदमी की अपनी कही जाती है किन्तु उसे इसी अपनी सरकार से मिलने, अपनी व्यथा कहने और उसके समाधान की अपेक्षा में न जाने नौकरशाही की कितनी अंधी सुरंगों से गुजरना पड़ता है कि वह आखिर में अपनी उम्मीद पर ही मिट्टी डाल देता है।  यह वास्तवकिता है, भले ही वह शिकायतें कर लें, सूचना के अधिकार अधिनियम को काम में लें या पब्लिक चार्टर का हवाला दें, बहरों की बारात में कोई नहीं सुनता। नौकरशाही का ‘कनेक्ट’ नेताओं से और नेताओं का ‘कनेक्ट’ नौकरशाही से!  इस ‘गठजोड़’ से जनता ‘थर्ड पार्टी’ बन चुकी है।

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र का लोक से जुड़ाव जरूरी आवश्यकता है किन्तु स्वकेन्द्रित अंधी दौड़ में शामिल ‘डिजाइनर’ नेताओं ने इसके उद्देश्य को ही पटरी से उतार दिया।  ग़ैर-जिम्मेदार नेताओं की भीड़, आलसी और उद्देश्यहीन नौकरशाही के बाद भी, जनता अपने श्रम और समय निवेश से इसे सफल बनाये रखने और स्वयं की उम्मीदों के लिये उजाला खोज लाने में प्रयासरत है। जनप्रतिनिधि और जन सेवक यदि अपना ‘कनेक्ट’ जनता से बनाने में ‘फ्लेक्सिबल’ हो जायें, तो विकास, विरासत और वैभव की न जाने कितनी कहानियां लिखने में हम सफल हो जायें।

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