सुख आंतरिक प्रसन्नता, उल्लासता है : जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी
चेन्नई । श्री मुनिसुव्रत जिनकुशल जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में श्री सुधर्मा वाटिका, गौतम किरण परिसर, वेपेरी में शासनोत्कर्ष वर्षावास में धर्मपरिषद् को संबोधित करते हुए गच्छाधिपति आचार्य भगवंत जिनमणिप्रभसूरीश्वर म. ने उत्तराध्यन सूत्र के प्रथम अध्ययन के दूसरी गाथा में परिषह का विशलेषण करते हुए कहा कि दो शब्दों का उल्लेख होता है- उपसर्ग और परिषह। किसी औरों के द्वारा दिया गया दु:ख उपसर्ग है और स्वयं के द्वारा स्वयं को दु:ख रुपी क्रिया में तपाना परिषह है। साधक अपनी साधना से दु:खों को आंमत्रित कर सहन करता है, दूसरे सामान्य व्यक्ति के लिए दु:ख हो सकता है लेकिन साधक के लिए वह भी सुखानुभूति करवाता है। बाहरी वातावरण, द्रव्य, पदार्थ के आधार पर सुख की अलग परिभाषा हो सकती है। वह साधु के पेरामीटर के अनुसार 22 प्रकार के परिषह सहन करता है और आत्मोन्नति के अनुसार वे उसे सुख अनुभव करते है, प्रसन्नता की सात्विक अनुभूति होती है। पूर्णिया श्रावक जो भगवान महावीर से उपदेश सुन परिग्रहों का त्याग कर लेता है, मात्र रुई काट कर जीवन यापन करता है, फिर भी सुखी रहता है। सुख आंतरिक प्रसन्नता, उल्लासता है।
हम सुख में नहीं अपितु सुखाभास में जीते हैं। एक सामान्य आदमी सुखी हो सकता है, वही बड़े बड़े बंगलों में रहने वाला भी दुखी हो सकता है। जिस क्रिया से सतत् सुखानुभूति होती है, सम्पूर्ण हो, वही वास्तव में सुख है, भौतिक संसाधनों से क्षणिक सुख मिल सकता है। वास्तव में सुख तो सिद्धों के पास ही है, बाकी संसारी प्राणी तो सुख का भार ढोते है। आपकी प्रसन्नता अपनी नहीं है, उधार की है, दूसरों की दी हुई है। सामने वाले ने आपकी प्रसन्नता की और आप सुखी हो गए और वहीं कुछ प्रतिकूल प्रभाव छोड़ता है, आप दुखी हो जाते हैं। आपकी मंहगी साड़ी, कपड़ा कुछ समय के लिए सुख का अनुभव करता है जैसे ही दूसरा आपसे मंहगी साड़ी या कपड़ा ले आता है आप दुखी हो जाते है।
आचार्य प्रवर ने आगे कहा कि अज्ञान, मोह रुपी अंधेरे को मिटना चाहिए। अपनी गलतियों को समर्पण भाव से स्वीकार कर ह्रदय में पश्चाताप के भाव से पवित्र बनना चाहिए। आंतरिक सुख परमात्मा का सुख हैं। साधु बन कर चारित्र स्वीकार करते हैं, संयम में रमण करते है। वह सुखी रहता है।
पुण्य के उदय में जो पुण्य का उपार्जन करता है, वह भाग्यशाली होता है, सौभाग्यशाली होता है।
जीवन में तीन नियम होने चाहिए-
1. सुख के लिए पाप करना पड़े, वह सुख काम का नहीं।
2. वह सुख भी काम का नहीं जिससे दुसरो को दुखी करना पड़े और
3. वह सुख भी काम का नहीं, जो बाद में दुखी होना पड़े- जैसे गुटके का सुख।