महिलाओं के ऑर्गेज़्म पर हिंदी के तबकों में कुछ वक्त पहले एक बहुत ज़रूरी बहस छिड़ी थी। ज़रूरी इसलिए क्योंकि अक्सर हम यह पाते हैं कि पितृसत्ता और हिन्दी भाषी क्षेत्रों में मौजूद रूढ़िवाद के चलते महिलाओं कीस सेक्शूऐलिटी पर बात नहीं हो पाती। कुछ महिलाएं जो इस पर बेबाकी से अपनी बात रखती हैं उनको गालियों और चरित्र की दुहाई दे कर हाशिये पर धकेल दिया जाता है।
ऑर्गैज़्म दिला पाने में पुरुषों की भूमिका
फेसबुक पर ऐसे ही एक पोस्ट पर मुझे एक बड़ा ‘दिलचस्प’ कमेन्ट दिखा। उसमें एक आदमी महिलाओं को ऑर्गैज़्म दिला पाने में पुरुषों की अक्षमता के बारे में बात कर रहा था। उसी क्रम में उन महाशय ने विकलांग पुरुषों की बात करते हुए कहा कि, “अक्सर ये देखा गया है कि लंगड़े पुरुषों की स्त्रियां [सेक्स में असंतोष के कारण] उन्हें छोड़ कर भाग जाती हैं।” ये भले ही एक बेहूदा और एबलिस्ट बात थी लेकिन ऐसा कहने वाला ये ओजस्वी आदमी अकेला नहीं है।
ये कमेंट पढ़ कर मुझे एक विकलांग व्यक्ति के तौर पर अपनी सेक्शुअल क्षमताओं के ऊपर अब तक उठी सवालिया निगाहें याद आ गईं।
क्या विकलांगता हमारी सेक्शूऐलिटी का मापदण्ड हो सकता है?
अगर कोई पुरुष विकलांग है तो उसे इमैस्कुलेट यानी उसकी मर्द होने की क्षमता पर सवाल उठाना और अगर कोई विकलांग महिला है, तो उसे सेक्शुअली आकर्षक ना मानना, ऐसी एबलिस्ट सोच वाले लोग आपको हर कहीं- आपके दोस्तों में, परिवार में, ऑफिस या कॉलेज में मिल जाएंगे।
मुझे याद है जब पहली बार मुझे मेरे स्पॉन्डिलाइटिस के बारे में पता चला था तो डॉक्टर ने जो पहली बात साफ करनी ज़रूरी समझी थी, वो ये कि
मगर जल्दी ही ये पता चला कि ऐसा वो क्यों कह रहा है। आने वाले कुछ वक्त में मुझे भी यही बात सताने वाली थी कि यार चलना फिरना तो होते रहेगा मगर ये सेक्स कैसे करेंगे? ज्ञात रहे कि तब तक जीवन में सेक्स के नाम पर पोर्न ही था और उसमें सेक्स पोजीशन के नाम पर जो कलाबाज़ीयां दिखाई जा रही थीं, वो देख कर मेरा दिल और बैठा जा रहा था।
सेक्स मुझमें डर बैठ गया
मेरी सोच का नतीजा ये निकला कि मेरे दिमाग में खुद के सेक्स करने को लेकर भयंकर डर बैठ गया। मेरे आस पास जो लोग थे उन्होंने भी इसमें घी डालने का ही काम किया। स्कूल के “दोस्त” एक ‘लंगड़े’ के सेक्स करने की इमेजिनेशन में ह्यूमर ढूंढने लगे। स्कूल के बाद भी जो लोग मिले वो भी गाहे बगाहे या तो मुझसे ये जानने की कोशिश करने लगे कि मैं सेक्स कैसे कर पाऊंगा या फिर ऐसा करने की क्षमता को लेकर लुका छिपा कर मज़ाक करने लगे।
हर कुछ देर पर यही सोचने लगता कि क्या मैं अपनी पार्टनर को असक्षम तो नहीं लग रहा होऊंगा मगर मेरी खुशकिस्मती ये रही कि वो और उसके बाद जीवन में आई हर महिला मेरी विकलांगता को लेकर इतनी समझदार, संवेदनशील और प्यार जताने वाली रही कि कभी वाकई में यह मैटर नहीं किया।
लेकिन बावजूद इसके मेरे दिमाग में गाहे-बगाहे खुद की शारीरिक क्षमता/अक्षमता को लेकर और मेरी बॉडी कैसी दिखती है उसे लेकर असुरक्षा की भावना स्ट्रॉन्ग हो जाती है। ऐसे कमेंट्स से फर्क नहीं पड़ना चाहिए लेकिन फर्क पड़ ही जाता है।
सेक्शूआलिटी पर बात एक्सेसिबिलिटी पर क्यों नहीं?
शारीरिक ताकत, भारीभरकम काम कर पाना या फिजिकल तौर पर बहुत एक्टिव होना: ऐसे ‘मर्दाना गुण’ किसी विकलांग पुरुष में अक्सर नहीं होते और ऐसा नहीं है कि हम ये भूल जाते हैं, फिर भी हर कदम पर हमें या तो सामाजिक और इंफ्रास्ट्रक्चरल ढांचे के द्वारा या फिर सीधे-सीधे तौर पर हमारे आस पास के लोगों द्वारा याद दिलाया जाता रहा है।
सिनेमा से लेकर समाज तक, हम विकलांग लोग सेक्सी होने की परिभाषा में फिट नहीं होते। अक्सर यही मान लिया जाता है कि किसी की विकलांगता उसके लिए प्रेम या सेक्स के दरवाज़े बंद कर देती है। मैंने यह महसूस किया है कि कैसे ऐसे लोग आपको असुरक्षा की भावना की ओर ले जाते हैं और प्यार पाने की उम्मीद नाउम्मीदी में बदलती जाती है।
ऐसे में, मैं यही कहना चाहूंगा कि आपमें कोई भी शारीरिक अक्षमता हो आप उसके साथ भी सेक्सी हैं। शारीरिक रूप से सक्षम होना अच्छे सेक्स की गारंटी नहीं होती, तो बिंदास अपना साथी खोजिए, अपनी हसरतों को ज़ाहिर करने में मत झिझकिए। जमाने को जो सोचना है वो सोचे!
युवाओं के पास एक ऐसी विश्वसनीय एजेंसी और क्षमता होनी