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बैनर-पोस्टर पर पीरियड्स की चर्चा, पर घरों में ‘पिन ड्राप साइलेंस’

आजकल तो बच्चों को थोड़ा बहुत पता भी होता है कि माहवारी क्या है? हम जब छोटे थे तो हमें हमारी शादी के 2 साल बाद इसकी जानकारी हुई थी। ये बात दिल्ली में रहने वाली महिला घरेलू कामगर सरोज, 45 वर्ष (बदला हुआ नाम) ने अपनी पीरियड्स की पहली कहानी बताते हुए कही।

2 साल तक बात छुपाए रखी

सरोज की शादी 11 वर्ष में हो गई थी, उन्हें तब ना माहवारी के बारे में पता था और ना ही शादी के बारे में। ठीक इसी तरह, 17 वर्ष की नेहा (बदला हुआ नाम) ने बताया कि उसको जब माहवारी हुई, तो उसने बस घर में अपनी बड़ी बहन को बताया और 2 साल तक उसने ये बात घर के अन्य लोगों से छुपाई।

मुझे पता था कि माहवारी होती है, मुझे उसके नियमों से डर लगता था इसलिए मैंने अपनी माहवारी की बात सबसे छुपाई क्योंकि मुझे वो सब नहीं करना था।

काला धव्वा खट्टा खाने से लगा है

प्रतीतात्मक तस्वीर।

अपनी माहवारी की पहली कहानी सुनाते हुए, 22 वर्ष की खुशबू (बदला हुआ नाम) ने बताया कि मुझे जिस दिन पहली बार महीना हुआ था, उस दिन मैंने काला खट्टा गोला खाया था, तो मुझे लग रहा था कहीं ये गोला का ही असर तो नहीं?
इस तरह की कई पीरियड्स की पहली कहानी है, कुछ चौकानें वाली और कुछ हंसाने वाली पर एक बात जो सभी कहानियों में एक समान है, वो है जानकारी की कमी, माहवारी के बारे में बात करने में चुप्पी।

क्यों कोई बात नहीं करता महावरी पर?

बात चाहे 30 साल पुरानी हो या कल की हो, माहवारी के विषय में जो धारणाएं बनी हुई हैं, उनकी जड़े बहुत मज़बूत हैं। माहवारी के दौरान होने वाली तमाम रोक-टोक जिनको परंपरा और कल्चर का नाम देकर ढंका जाता है, वो बस बहाने और तरीके हैं लैंगिक भेदभाव के और असल मायने में पितृसत्ता का एक और चेहरा हैं।

जब हम बड़े हो रहे होते हैं, हमारे अंदर कई बदलाव होते हैं पर घर हो या स्कूल, उन बदलावों के बारे में ज़िक्र नहीं किया जाता।

सबके अनुभवों और खुद मेरे अनुभवों से मैं ये निश्चित तौर पर कह सकती हूं कि जिस पहले पीरियड्स को ज़रूरत होती है जानकारी की और सपोर्ट की, उसी पहले पीरियड्स में शुरू हो जाती है, लिंग के आधार पर हिंसा।

घर की चारदीवारी में आज भी चुप

प्रतीतात्मक तस्वीर।

आज हम थोड़े आगे तो ज़रूर आए हैं, दुनिया भर में विश्व माहवारी दिवस मनाया जा रहा है। हम स्कूल, मोहल्लों में बात कर रहे हैं इसके बारे में। हम पोस्टर बना रहे हैं, हम सोशल मीडिया पे पोस्ट कर रहे हैं। हम नुक्कड़-नाटक कर रहे हैं, स्कूलों में सत्रों का आयोजन कर रहे हैं।

कई व्यक्ति और संस्थाएं पीरियड्स से जुड़ी अवधारणाओं को तोड़ रहे हैं पर तब भी कहींना कहीं कमी हो रही है।

 माहवारी की बातें बड़े समाज का तो हिस्सा हैं पर घर के चारदीवारियों में इसके बारे में आज भी चुप्पी है। घरों में आज भी पीरियड्स पे पीरियड लगा हुआ है। माहवारी को साधारण बनाने के लिए इसे ख़ास मुद्दा से आम मुद्दा बनाने की ज़रूरत है।

घरों में इसके बारे में बातचीत शुरू करनी होगी। माहवारी से जुड़े जितने भी मिथक हैं, उसे तोड़ने के लिए और माहवारी को एक नॉर्मल प्रक्रिया बनाने के लिए हमें सवाल उठाने की ज़रूरत है। जब हम “क्यों” पूछना शुरू करेंगे तभी हम माहवारी से जुड़े अपने अधिकारों को समझेंगे, हम माहवारी स्वच्छता और सफ़ाई को सही मायनों में अपनाएंगे और इससे जुड़े स्टिग्मा को हटा पाएंगे।

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