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हिंदी दिवस

हिंदी दिवस

ओपीडी में बैठा था कि एक मक्कार मानस नुमा , झूठ-प्रपंच शिरोमणि,मेरे दूर के रिश्तेदार और एक फ्रॉड संस्था में उच्च पद पर काबिज एक महाशय  चैंबर में आ धमके। सुबह  सुबह आयी  इस पनौती से आज दिन भर का ओपीडी प्रभावित होने की आशंका से ही मन खिन्न सा हो गया। क्या करें? दूर के रिश्तेदार से वैसे मैं दूरी बनाकर चलता हूँ, दूर के रिश्तेदार और सड़क पर सांड कब पटखनी  दे दे, कह नहीं सकते। कई बार अपनी पटखनी दिला भी चुका हूँ।

खैर, आशा के विपरीत आज तो महाशय एक आमंत्रण कार्ड साथ में लेकर आये ।आमंत्रण था ‘चौदह सितम्बर’ को ‘हिंदी दिवस’ पर वो भी  मुख्य अतिथि के रूप में। न जाने कैसे उन्हें पता लग गया था कि मैं आजकल हिंदी में लिखने लग गया हूँ। लेकिन हिंदी में लिखने मात्र से ही मैं हिंदी का खेवनहार तो नहीं बन गया। मुझे मालूम है,अभी भी  हिंदी भाषा के ज्ञाता के रूप में  मैं अपने आपको  पहली क्लास का विद्यार्थी मानता हूँ। हिंदी के प्रकांड विद्वान मेरे शहर में मौजूद हैं । कई शिक्षक हैं  जो रिटायर्ड हो चुके हैं, उनसे आज भी मैं मिलता हूँ । गाहे बगाहे उनके साथ हिंदी भाषा के इस प्रकार से हिंदी हो जाने  का दुःख साझा कर लेता हूँ । लेकिन उन सभी को छोड़कर मुझे क्यूँ आमंत्रित किया जा रहा था ,ये थोड़ा समझ से परे था ।

मैंने जिज्ञासावश पूछ ही लिया, “अच्छा और कौन कौन  आ रहे हैं?”

बोले, “ बस दो ही हैं अतिथि हैं ,एक तो आप हैं और दुसरे  एसडीएम साहब हैं , उन्हें भी हिंदी से विशेष लगाव है। हिंदी कवि सम्मेलनों में आतिथ्य  ग्रहण करते रहते हैं।मुख से हिंदी जब बोलते हैं तो ऐसा लगता है जैसे मधु टपक रहा हो । ‘मैं  सोच रहा था हिंदी क्या मुख के अलावा कहीं ओर से भी बोली जा सकती है ।

उन्होंने अपनी बात जारी रखी “ संस्था के सोसाइटी में पंजीयन में भी उन्होंने हमारी सहयता की थी ।उन्होंने कहा था की आप लोग हिंदी के लिए भी कुछ करिए । बस तभी से हिंदी के उद्धार में लगे हुए हैं । हमारी संस्था तो हिंदी के प्रति बहुत समर्पित है, हर बार हिंदी दिवस मनाते हैं, बच्चों से हिंदी वाद-विवाद प्रतियोगिता ,विचार संगोष्ठी ,बैनर,पोस्टर प्रतियोगिता, हिंदी अन्त्याक्षरी आदि करवाते हैं।”

मैंने कहा, “ सेवानिवृत्त हिंदी शिक्षकों को क्यूँ नहीं बुलाते, उन्हें सम्मानित करें?”

वो मेरे इस अप्रत्याशित प्रश्न पर थोड़ा झिझके फिर अपने आपको सम्भालते हुए बोले, “अरे सरकार है न, उनके लिए ।हमने कौन सा उनका ठेका ले रखा है। दरअसल, संस्थाएं डोनेशन से चलती हैं गर्ग  साहब । “
जाहिर है ,जब से इन्हें पता लगा कि शहर के डॉक्टरों को हिंदी का बुखार चढ़ा है
, तो संस्थाएं को ये तो सोने पे सुहागा वाली बात हुई, अब हिंदी दिवस भी धूमधाम से मना सकेंगे।”
मैंने कहा –“लेकिन मुझे तो हिंदी ढंग से बोलना भी नहीं आता ,माफ़ कीजियेगा, लिखते हैं तो वर्तनी अशुद्धी और वाक्य अशुद्धी को ठीक किया जा सकता है।लेकिन बोलने में तो एक बार गया मुहँ  से शब्द का तीर फिर कौनसा तुणीर में वापस आएगा “ नहीं यार हमसे तो कम से कम हिंदी दिवस पर ऐसी हिंदी मत करवाइए “

हिंदी में लिखना एक अलग बात है , हिंदी बोलना एक अलग बात ।हिंदी में जिस प्रकार से लोकल भाषाएँ, आंचलिक  भाषा, आंग्लिक शब्दों का मिश्रण हुआ है, बोलचाल की हिंदी भाषा बहुत कुछ अलग अंदाज लिए है । ऐसे में अच्छी हिंदी बोलना कम से कम मेडिकल फील्ड के कर्मियों के लिए तो संभव नहीं है ।यहाँ हम जैसे त्रिशंकु बहुत  हैं जो हिंदी और इंग्लिश की डोरी के बीच में टंगे हुए है ,न ढंग से इंग्लिश बोल पायें न हिंदी।
लेकिन उन्हें इस बार हिंदी का उद्धार मेरे कर कमलों से ही कराना  था ।शायद संस्था में ये कमिटमेंट करके आये थे की अच्छा खासा डोनेशन कबाड़ कर लायेंगे इस बार देख लेना। अगली बार इलेक्शन में उनकी दोबारा पद पर बने रहने की दावेदारी इसी बात पर टिकी हुई थी ।

 

 उन्होंने कहाँ का आमंत्रित किया ,हमारी तो रातों की नींद खराब हो गयी । भाषण लिखा जाने लगा ,उसे रटा जाने लगा, बीच बीच में कुछ अंग्रेजी के शब्द थे उनका हिंदी में रूपांतरण किया गया । तुरत फुरत हिंदी शब्दकोष मंगवाया  गया  । अब समस्या आयी की कार्यक्रम के दौरान पहना क्या जाए? हिंदी दिवस पर आप सम्मानित हो रहे हैं तो परिधान  भी ठेठ भारतीय  होना  चाहिए। ऐसा न हो की  संस्था वाले हमें सूट-बूट टाई में  देखकर  बाहर ही कर दें।

हिंदी साहित्यकार की  एक टिपिकल शक्ल, परिधान और पहचान बना दी गयी है ।खादी का कुर्ता पायजामा, जेब में फाउंटेन पेन, बगल में झोला। खैर ये सब तो हमने नहीं किया बस चल दिए खचाखच भरे  ओ पि डी  से नजरें बचाते हुए ।

मैं रास्ते से जा रहा था तो देखा एक बुढ़िया लंगड़ाती हुई जा रही थी। मैंने कहा, “क्यूँ बीच सड़क पे चल रही हो माई ? जरा साइड में चलो न, कोई भी टक्कर मार कर गिरा  जाएगा।”

 

बोली, “बेटा,पहचाना नहीं ,में  हिंदी ही हूँ  ,जिसके स्वागत सम्मान समारोह में तू जा रहा है ।आज तो मुझे बीच रास्ते पर चलने दे ।साल भर किनारे पर ही तो चल रही हूँ , सभी ने मुझ से किनारा कर लिया । देख मेरी टांग ,कैसे टूटी पडी है ! सब मुझ पर हँसते हैं । ये सही नहीं है , तुम भी चल दिए मुझे बेअआबरू करने।बस मेरी हालत बिल्कुल घर की माताओं  जैसी हो गई है। साल के तीन सौ चौंसठ दिन तो मुझे भूल ही जाते हैं, बस एक दिन का मदर डे और एक दिन का हिंदी दिवस । बाकी दिन तो  कोने में पड़ी अलमारियों की हिंदी की किताबों की धूल में पड़ी सिसकती रहती हूं।

मेरे कितने ही बेटे आज हर गाँव और शहर में ही अतीत के पन्नों की तरह भुला दिए गए। वो बेटे जिन्होंने मुझे संभाला,मुझे सहारा दिया,मेरी अस्मिता की रक्षा को तत्पर रहे ! कितने ही आक्रमण मैंने झेले  हैं,सनातन काल से आताताइयों ने अपनी संस्कृति और भाषा की मार से मुझे घायल किया है । लेकिन इन बेटों ने अपनी लेखनी के सतत प्रवाह से मुझे अक्षुण रखा । स्वतंत्रता के बाद मुझ में एक आशा जगी थी की ,अब मेरी सुध लेने वाली सरकार बनी है । लेकिन खानापूर्ती   के सिवा क्या हुआ है , बस ऑफिस बना दिए,भाषा  बिभाग  बना दिया, सरकारी स्कूलों  में हिंदी पखवाडा मना कर सरकार अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेती है । सुर में सुर मिला रहे किसी भाई भतीजे को हिंदी का खेवनहार घोषित कर सरकार बस एक शाल, ताम्र पत्र और नारियल देकर उन्हें सम्मानित कर लेती है। सच पूछो तो अगर किसी योग्य व्यक्ति को मिल भी जाए तो ताम्र पत्र को बेचकर कितने दिन की रोटी राशन घर में ला  सकता है।“
हिंदी माता की साँसे उखड़ने लगी थी, कमर जो झुकी हुई थी और झुक गयी थी । मैंने उसे सहारा देकर पहले  सड़क से साइड में बिठाया और इत्मीनान से उसकी आगे की रामकहानी सुनने की इच्छा जाहिर की ।

“मुझे बोलने वाले को हीन भाव से देखा जाता है ।नौकरी, कम्पीटीशन सभी जगह हिंदी भाषी पिछड़ा हुआ है । क्या मैं सिर्फ कवियों, लेखकों की भाषा ही रह गई हूँ? कब मुझे असल में मातृभाषा का दर्जा मिलेगा? या सिर्फ माता बनाकर आले में रखके पूजा जाना बस येही मेरी नियति है । एक दिन के लिए झाड़ पोंछकर अगरबत्ती जला दी जाएगी और बच्चों को दूर से दिखाया जाएगा, “देखो बेटा, इसे कहते हैं हिंदी। ये भी एक भाषा है, ये कभी हमारे पुरखों  की भाषा हुआ  करती थी, इंकलाब की भाषा, क्रांति की भाषा। जगत जननी  की इस भाषा को आज बस्ते में ढेरों कोर्स किताब के बीच में एक कुंजी के रूप में जाना जाता है।”

रचनाकार : डॉ मुकेश असीमित

 हिंदी माता से मैं आँखें नहीं मिला पा रहा था। अब मेरे कदम भारी हो गए थे, चलना मुश्किल हो रहा था। सोच रहा था कि वापस लौट चलूँ। इस हिंदी दिवस पर थोथे भाषणबाजी और शोबाजी से दूर , माला माइक मंच  और सम्मान से क्या निश्चित मेरा कोई योगदान हो सकता है? कदापि नहीं।  इससे बढ़िया तो आज इस दिवस पर मेरे बेटे को कोई पुस्तक प्रेमचंद ,महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ,जयशंकर प्रसाद. सुमित्रानंदन पंत  की भेंट करूँ और कहूँ, “बेटा, एक बार ये पढ़ना शुरू कर, हिंदी के प्रति  अपने बच्चों का रुझान बढाने से बढ़कर शायद हिंदी का कोई सम्मान नहीं हो सकता ।”

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