संत शिरोमणी जैनाचार्य विद्यासागर की समाधि से अपूरणीय क्षति
मुरेना/मनोज जैन नायक । जैन समाज के सर्वोच्च संत दिगंबराचार्य श्री विद्यासागर महाराज की 18 फरवरी को रात्रि 02.35 बजे चंद्रगिरी डोगरगढ़ (छत्तीसगढ़) में सल्लेखना पूर्वक समाधि हुई । आप आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के शिष्य थे । आचार्य श्री की समाधि से जैन समाज को अपूरणीय क्षति हुई है ।
जैन समाज के समाजसेवी मनोज नायक ने जानकारी देते हुए बताया कि आचार्यश्री का जन्म 10 अक्टूबर 1946 को विद्याधर के रूप में कर्नाटक के बेलगाँव जिले के सदलगा में शरद पूर्णिमा के दिन हुआ था। आपके पिता श्री मल्लप्पा थे जो बाद में मुनि मल्लिसागर बने। उनकी माता श्रीमंती थी, जो बाद में आर्यिका समयमति बनी।
आचार्य श्री विद्यासागर जी को 30 जून 1968 को अजमेर में 22 वर्ष की आयु में आचार्य ज्ञानसागर ने दीक्षा दी जो कि आचार्य शांतिसागर जी के शिष्य थे। आचार्य विद्यासागर जी को 22 नवम्बर 1972 में ज्ञानसागर जी द्वारा आचार्य पद दिया गया था, केवल विद्यासागर जी के बड़े भाई ग्रहस्थ है। उनके अलावा सभी घर के लोग संन्यास ले चुके है। उनके भाई अनंतनाथ और शांतिनाथ ने आचार्य विद्यासागर जी से दीक्षा ग्रहण की और मुनि योगसागर जी और मुनि समयसागर जी कहलाये।
आचार्य विद्यासागर जी संस्कृत, प्राकृत सहित विभिन्न आधुनिक भाषाओं हिन्दी, मराठी और कन्नड़ में विशेषज्ञ स्तर का ज्ञान रखते हैं। उन्होंने हिन्दी और संस्कृत के विशाल मात्रा में रचनाएँ की हैं। सौ से अधिक शोधार्थियों ने उनके कार्य का मास्टर्स और डॉक्ट्रेट के लिए अध्ययन किया है। उनके कार्य में निरंजना शतक, भावना शतक, परीषह जाया शतक, सुनीति शतक और शरमाना शतक शामिल हैं। उन्होंने काव्य मूक माटी की भी रचना की है। उक्त काव्य विभिन्न संस्थानों में स्नातकोत्तर के हिन्दी पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाता है। आचार्य विद्यासागर जी अनेकों धार्मिक कार्यों में प्रेरणास्रोत रहे हैं।
आचार्य विद्यासागर जी के शिष्य मुनि क्षमासागर जी ने उन पर आत्मान्वेषी नामक जीवनी लिखी है। इस पुस्तक का अंग्रेज़ी अनुवाद भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित हो चुका है। मुनि प्रणम्यसागर जी ने उनके जीवन पर अनासक्त महायोगी नामक काव्य की रचना की है।
आचार्य श्री सदैव हिंदी बोलने पर जोर देते थे । उन्होंने भारत को इंडिया नहीं, भारत बोलने की अपील की थी । दिगंबर अवस्था में रहते हुए कभी भी वाहन का उपयोग नहीं किया । बिना बताए विहार करने के कारण अनियमित बिहारी कहलाए । आचार्य श्री का दही, शक्कर, नमक, तेल, फल, सूखे मेवे, हरी सब्जी, पांच रसों सहित अंग्रेजी दवाओं का आजीवन का त्याग था । कड़ाके की ठंड में भी कभी चटाई आदि का उपयोग नहीं किया । भौतिक संसाधनों सहित थूकने तक का त्याग था । 24 घण्टे में एक बार खड़े होकर हाथ की अंजुली बनाकर सीमित मात्रा में आहार लेने का नियम था ।
सम्पूर्ण विश्व में सबसे ज्यादा जेनेश्वरी दीक्षाएं देने वाले प्रथम आचार्य थे ।
मूक पशुओं के प्रति भी दया प्रेम का भाव रखते हुए सैकड़ों गौशालाएं बनावाई ।प्रदेश में आचार्य श्री के नाम से गौशाला योजना भी चल रही है ।
परम पूज्य संत शिरोमणी जैनाचार्य विद्यासागर जी की समाधि से जैन समाज को अपूरणीय क्षति हुई है ।