‘माउंट आबू’ पर नए नामकरण का संकट: नाम बदलने और धार्मिक कट्टरता की नीति से आर्थिक रूप से प्रभावित होगा राजस्थान का एकमात्र हिल स्टेशन
विशेष कवरेज: ‘माउंट आबू मंथन’ | उदयपुर मंथन – एक संवाद
लेखक : यशवर्धन राणावत, उपाध्यक्ष होटल एसोसिएशन उदयपुर
Mount Abu Name Change: राजस्थान, जो अपनी राजसी विरासत और धर्मनिरपेक्ष संस्कृति के लिए जाना जाता है, आज एक विचित्र पहचान और सोच के संकट से जूझ रहा है। राज्य सरकार द्वारा माउंट आबू का नाम बदलकर ‘आबू राज तीर्थ’ रखने और वहां मांसाहार व मदिरा पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव न केवल विवादास्पद है, बल्कि एक हास्यास्पद कदम है।
जो निर्णय सतही तौर पर आध्यात्मिकता की ओर बढ़ता हुआ दिखता है, असल में वह माउंट आबू की सांस्कृतिक विविधता और आर्थिक संरचना को नष्ट कर देने वाला कदम हो सकता है। बिना जनसुनवाई, पर्यटन हितधारकों से राय, आर्थिक सोच और ऐतिहासिक सम्मान के लिया गया कोई भी निर्णय सुशासन नहीं कहलाता—वह वैचारिक थोपना होता है।

तीर्थ ही नहीं, विश्राम स्थल भी है माउंट आबू
माउंट आबू दशकों से राजस्थान की तपती रेत में शीतल छांव की तरह रहा है—हनीमून कपल्स, परिवारों, कॉलेज छात्रों और देसी व विदेशी पर्यटकों के लिए यह एक जीवंत और समावेशी पर्यटन स्थल रहा है। यह वह जगह है जहां लोग खुलकर सांस लेते हैं, सुकून पाते हैं, और जीवन को फिर से जीने की ऊर्जा पाते हैं।
अब यदि इसे तीर्थ बनाने के नाम पर मांस और शराब पर प्रतिबंध लगाया जाता है, और नाम भी बदल दिया जाता है, तो यह ऐसा ही होगा जैसे मोर के पंख काट दिए जाएं और उससे नृत्य की उम्मीद की जाए। यह निर्णय न केवल पर्यटकों को दूर करेगा, बल्कि उन हजारों लोगों के जीवन पर भी आघात करेगा जो पर्यटन पर निर्भर हैं—होटल व्यवसायी, गाइड्स, ट्रैवल एजेंट्स, रेस्तरां संचालक, ठेलेवाले, हस्तशिल्पी, दुकानदार, टैक्सी ड्राइवर आदि।
जब 23 से अधिक स्थानीय संगठन इसका विरोध कर रहे हैं, तो यह स्पष्ट है: माउंट आबू को राजनीतिक दिखावे या नैतिक थोपाव के लिए बलिदान नहीं किया जाना चाहिए ।
आध्यात्मिकता या धार्मिक कट्टरता?
नाम परिवर्तन के पक्षधर इसे ‘धार्मिक पवित्रता’ की ओर एक कदम बता रहे हैं, लेकिन सवाल उठता है: क्या यह वास्तव में आध्यात्मिकता है, या धार्मिक कट्टरता की ओर बढ़ता हुआ एक और खतरनाक कदम?
भारत सदा से विविधता का सम्मान करने वाला देश रहा है। यहां हर सोच, हर संस्कृति और हर स्वाद का स्वागत होता है। यदि इस तर्क को स्वीकार करें, तो क्या गोवा में शराब पर प्रतिबंध लगेगा? क्या जयपुर को तीर्थ घोषित किया जाएगा? क्या अब हर पर्यटन स्थल को धार्मिक चश्मे से देखा जाएगा?
यह आध्यात्मिकता नहीं, बल्कि धर्म की आड़ में सामाजिक विविधता का गला घोंटना है।
इतिहास से छेड़छाड़
नाम केवल पहचान नहीं होते—वे इतिहास, स्मृति और संस्कृति के वाहक होते हैं। माउंट आबू का नाम बदलकर ‘अबू राज तीर्थ’ करना हमारे अतीत के साथ खुली छेड़छाड़ है। 1830 से लेकर आज तक माउंट आबू एक ऐतिहासिक और प्राकृतिक विरासत का प्रतीक रहा है। यह अंग्रेजों की राजपूताना एजेंसी का ग्रीष्मकालीन मुख्यालय रहा, और यहां की सुंदरता ने इसकी अंतरराष्ट्रीय पहचान बनाई। चाहे हम उसे कोलोनियल शासनकाल कहें, पर उससे भी सीखने को बहुत कुछ है; यह की भविष्य में ऐसे कार्य नहीं करें जो फिर से ग़ुलामी की और इशारे करे, चाहे वो भीतरी हो या बाहरी । आज के दौर में वैश्विक सोच की जरूरत है ना की क्षेत्रीय । अगर कोई नाम ग़ुलामी की याद दिया रहा है, तो सीख और जागरूकता की और अग्रसर कर रहा है की क्या वे कारण हैं जिससे की हम पूर्व में ग़ुलाम बने । क्या हम इस जागरूक कर देने वाले नाम ‘माउंट आबू’ से वंचित रहना चाहेंगे ?
बार-बार नाम बदलने से हम केवल बोर्ड नहीं बदलते—हम इतिहास मिटाते हैं, संस्कृति खत्म करते हैं, और सामाजिक सह-अस्तित्व को खंडित करते हैं। यह राजनीतिक बदले की संस्कृति को बढ़ावा देता है—जो आज सत्ता में नहीं हैं, कल लौटकर इसे पलट सकते हैं। यह चक्र भारत जैसे लोकतंत्र के लिए घातक है।
बहिष्करण की अर्थव्यवस्था
पर्यटन कोई धार्मिक मिशन नहीं है—यह एक जीवंत आर्थिक इंजन है। जब शराब और मांसाहार प्रतिबंधित हो जाएगा, तो पर्यटक दूसरे कम-बंधनों वाले स्थलों की ओर रुख करेंगे। परिणाम? बेरोजगारी, व्यवसाय का पतन और माउंट आबू की पहले से मौसमी पर्यटन आधारित अर्थव्यवस्था का पूर्ण पतन।
अगर सरकार वास्तव में आध्यात्मिकता को बढ़ावा देना चाहती है, तो वह अति विशिष्ट तीर्थ क्षेत्र विकसित करे, लेकिन एक फलते-फूलते पर्यटन स्थल को नष्ट न करे।
एक विवेकपूर्ण अपील
राजस्थान जैसे विविध राज्य में नीति बनाते समय समावेश, विवेक और ऐतिहासिक सम्मान को आधार बनाना चाहिए। प्रशासन, सुशासन और संबंधित विभागों से अपील है कि वे इस राजनीतिक रंगमंच से ऊपर उठें और ज़मीनी हकीकत को समझें।
माउंट आबू की आत्मा उसकी समरसता में है—न कि उसे एकरूपता में ढालने में। हमें इस अनर्थकारी निर्णय को रोकना चाहिए, वरना सदियों की सामाजिक साझेदारी और आर्थिक समृद्धि धीरे धीरे मलबे में तब्दील हो सकती है । हम सभी को साथ आकर राज्य और राष्ट्र के स्तर पर मजबूती के साथ जलाशयों, झीलों, पहाड़ियों, महलों, हवेलियों, कोलोनियल इमारतों, मंदिरों, ऐतिहासिक स्थलों, बागों, सड़कों इत्यादि को पुनर्जीवित कर इनमें उत्कृष्ट कार्य को बढ़ावा देना चाहिए, इनमें से अधिकतर की हालत बहुत ख़राब है । यही हाल अनेकों पर्यटक हितधारकों का है जिन्हें कई तरह की जटिल प्रक्रियाओं में उलझाया जाता है और ‘ईज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस’ केवल खोखला दावा मात्र रह जाता है । सरकार व प्रशासन से निवेदन है के वे समय रहते संज्ञान लें और जो प्रशासनिक तबकों में दिशाहीन हो गए हैं उन्हें दिशा दें, ताकि तर्क सम्मत कार्य हो पायें और सरकार को और मज़बूती मिले ।
माउंट आबू को माउंट आबू ही रहने दें ।