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स्वयं को पवित्र रखना है पर्युषण की विशिष्टता

स्वयं को पवित्र रखना है पर्युषण की विशिष्टता

जैन समाज का विशिष्ट पर्युषण पर्व संयम व साधना के रूप में सकल जैन समाज द्वारा उत्साह के साथ मनाया जाता है। पर्युषण का सामान्य अर्थ है- परि यानी चारों ओर से, उष्ण यानी धर्म की आराधना करना। पर्युषण पर्व को महापर्व या पर्वो का राजा भी कहा जाता है। पयुर्षण का अंतिम दिवस संवत्सरी या क्षमावाणी दिवस के रूप में मनाया जाता है। संवत्सरी शब्द संस्कृत से बना है, जिसका अर्थ है- वार्षिक दिवस। यह विशिष्ट दिन दुनिया भर में क्षमा-दिवस के रूप में जाना जाता है। इस पर्व की महानता सभी लोग स्वीकार करते हैं ।

जैन परंपरानुसार पर्युषण चातुर्मासीय साधना का विशिष्ट पर्व है। पर्युषण पर्व भाद्रपद मास में श्वेतांबर और दिगंबर समाज द्वारा मनाया जाता है। श्वेतांबर के व्रत समाप्त होने के बाद दिगंबर समाज के व्रत प्रारंभ होते हैं । श्वेतांबर समाज 8 दिन तो दिगंबर समाज 10 दिन तक इस पर्व के दौरान व्रत रखते हैं और हर प्रकार के ताप व पाप मिटाए जाते हैं।

पर्युषण शब्द का अर्थ है- आत्मा में नजदीक निवास करना । पयुर्षण का अभिप्राय है कि स्वयं को आध्यात्मिकता से जोड़कर साधना के पथ पर आगे बढ़ना। यह पर्व स्वयं में बदलाव लाने की ओर प्रेरित करता है। आत्मा का चिंतन और परिष्कार जितना सरल प्रतीत होता है, उतना है नहीं। सही मायने में यह एक कठिन तप की साधना है। वर्तमान युग की प्रतिस्पर्धा में जीवन वैमनस्यों से भरा हुआ है। ऐसे में पर्युषण पर्व की विशेषता महान है। पर्युषण पर्व जीवन की स्वाभाविकता की ओर हमें अग्रसर करता है। इस दिन भगवान महावीर की देशना को आत्मसात करने का प्रयत्न करना ही साधना का अंग है। जैन धर्म में क्षमापना पर्व को संवत्सरी पर्व के रूप में भी मनाया जाता है । आध्यात्मिक दृष्टि से यह दुनिया का एक अलौकिक व विशिष्टता धारक पर्व है, इस पर्व में तप, त्याग, स्वाध्याय व विभिन्न अनुष्ठानों का विशेष महत्व है। भगवान महावीर के सिद्धांतों को ध्यान में रखकर पर्युषण के दिनों में आत्म-साधना में लीन होकर धर्म के बताए रास्ते पर चलने का संकल्प ग्रहण करना ही साधना का अंग है।

पर्युषण पर्व भगवान महावीर के मुख्य सिद्धांत अहिंसा परमो धर्म, जिओ और जीने दो की राह पर चलना सिखाता है। मान्यता है कि

पर्युषण पर्व इस पर्व की साधना से मोक्ष प्राप्ति के द्वार खुलते हैं यानी आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो, यह इस पर्व का ध्येय है। पर्युषण पर्व के अंतिम दिन मैत्री दिवस अर्थात संवत्सरी पर्व मनाया जाता है। दिगंबर समाज में उत्तम क्षमा पर्व तो श्वेतांबर समाज में मिच्छामि दुक्कड़म् का उच्चारण करते हुए, लोगों से क्षमा मांगते हैं व क्षमा प्रदान करते हैं। इससे सभी विकारों का नाश होकर मन पवित्र व निर्मल हो जाता है और सभी के प्रति मित्रता का भाव पनपता है।

इस पर्व के दौरान साधु व श्रावक के लिए ही 7 नियम बताये गये हैं। साधुओं के लिए संवत्सरी, प्रतिक्रमण, केशलोचन, तपश्चर्या, न आलोचना और क्षमा-याचना हैं तो गृहस्थ के लिए श्रवण, तप, अभयदान, ब्रह्मचर्य का पालन, आरंभ स्मारक का त्याग, संघ की सेवा और क्षमा-याचना आदि कर्तव्य |

पर्युषण पर्व के दौरान व्रत व नियम के माध्यम से शारीरिक, मानसिक व वाचिक तप में स्वयं को पूरी तरह समर्पित करने का भाव ही तप की श्रेणी में आता है। इस दिन साधु-साध्वी व श्रावक- श्राविकाएं अधिक से अधिक धर्म-ध्यान और त्याग व तपस्या करते हुए, एक-दूसरे से क्षमायाचना हैं और दूसरों को क्षमा करते हुए मैत्रीभाव की ओर कदम बढ़ाते हैं। संवत्सरी महापर्व के दौरान बिना कुछ खाए और पिये निर्जला व्रत रखने का भी विधान है। सात दिन त्याग, तपस्या, शास्त्र श्रवण व धर्म-आराधना के साथ मनाने के बाद आठवें दिन को संवत्सरी महापर्व के तौर पर मनाया जाता है।

दिगम्बर जैन समाज द्वारा दसलक्षण पर्व के रूप में यह पर्व मनाया जाता है। इन दस दिनों के दौरान व्यक्ति क्रोध पर काबू रखना एवं क्रोध को विन्रमता के भाव से जीतने का संकल्प करता है। इसी प्रकार व्यक्ति जो सोच लेते हैं उस पर अमल करके उसे सफल अंजाम देना आवश्यक है, यानी जो कहा है उसे पूर्ण करना जरूरी है। इसके अलावा कम बोलें, लेकिन अच्छा बोलें, सच बोलें । पर्व के दौरान मन में किसी भी तरह का लालच नहीं रख सकते, किसी तरह का स्वार्थ मन में नहीं होना चाहिए । इसी प्रकार दिन भर मन पर काबू रखते हुए संयम से काम लेना जरूरी होता है। मलीन वृत्तियों को दूर करने के लिए जो बल चाहिए, उसके लिए तपस्या करना । पात्र को ज्ञान, अभय, आहार, औषधि आदि सद्वस्तु देने के साथ ही किसी भी वस्तु आदि के लिए मन में कोई स्वार्थ आदि न रखना होता है। सही मायने में जीवन में सद्गुणों का अभ्यास करना और अपने जीवन को पवित्र रखना ही इस महापर्व की विशिष्टता है।

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